Wednesday, April 28, 2010

लहु और आंसु

जमीन पर लहु बिखरा पड़ा है
फिर भी उनका बयान
किन्तु और परंतु शब्दों के साथ खड़ा है।
मरने वालों पर बोले वह कुछ शब्द
पर कातिलों का दर्द भी बयान कर गये
हैवानों के इंसानी हकों के साथ
ज़माने से लड़कर उन्हें जिंदा रखने का जिम्मा
उनकी रोटी के गहने में सच की तरह जो जड़ा है।
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शहीद जो हो गये
उन पर उन्होंने आंसु बहाये,
पर फिर कातिलों के इंसाफ के लिये
खड़े हो गये वह मशाल जलाये।
हैवानों के चेहरे पर फरिश्तों का नकाब
वह हमेशा सजा दी
फिर इंसानी हक के नारे लगाये।

अपना भला काम भुनाना नहीं

बड़े बुजुर्ग सच कह गये कि
किसी का भला कर
फिर किसी को सुनाना नहीं।
भलाई का व्यापार
शायद पहले भी इसी तरह
चलता रहा होगा,
करते होंगे कम
लोग सुनाते होंगे अपने किस्से ज्यादा,
बिकता होगा पहले भी
बाज़ार में इसी तरह भलाई का वादा,
कौन मानेगा कि
बिना मतलब किसी का काम किया होगा,
पर इंसान तो गल्तियों का पुतला है
कभी कभी हो जाये भला काम
फिर उसे कभी अकेले में भी गुनगनाना नहीं,
लिख देना समय के हिसाब में
मिला इनाम तो ठीक
पर अपना खुद भुनाना नहीं।

दौलतमंदों का सजा बाज़ार

पैसे कमाने का हुनर
दुनियां में सबसे अच्छा माना जाता है,
भले ही कोई फन हो न हो
दौलतमंद खरीद लेता है
सारे फनकार कौड़ी के भाव
इसलिये हुनरमंद भी माना जाता है।
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मयस्सर नहीं हैं जिनको रोटी
उनसे ज़माना खौफ खाता है।
इसलिये फुरसत मिलने पर करते हैं
सभी गरीब का भला करने की बात
बाकी समय तो दौलतमंदों के सजाये
बाजार में ही बीत जाता है।

बेबस की आग

अपनी जरूरतों को पूरा करने में लाचार,
बेकसूर होकर भी झेलते हुए अनाचार,
पल पल दर्द झेल रहे लोगों को
कब तक छड़ी के खेल से बहलाओगे।
पेट की भूख भयानक है,
गले की प्यास भी दर्दनाक है,
जब बेबस की आग सहशीलता का
पर्वत फाड़कर ज्वालमुखी की तरह फूटेगी
उसमें तुम सबसे पहले जल जाओगे।
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वह रोज नये कायदे बनवाते हैं,
कुछ करते हैं, यही दिखलाते हैं,
भीड़ को भेड़ो की तरह बांधने के लिये
कागज पर लिखते रोज़ नज़ीर
अपने पर इल्ज़ाम आने की हालत में
कायदों से छुट का इंतजाम भी करवाते हैं।

इंसानी मुखौटा

भूख बाहर बिफरी है
अनाज के दाने गोदामों में पाये जाते हैं
भूखे इंसानों के पांव वहां तक क्या पहुचेंगे
पंछी भी पंख वहां तक नहीं मार पाते हैं।
इंसानी मुखौटा लगाये शैतानों ने
कर लिया है दौलत और ताकत पर कब्जा
अपनी भूख मिटाने के वास्ते
हुक्मत अपने इशारों पर चलाये जाते हैं।
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वादों पर कब तक यकीन करें
हर बार धोखा खाया है,
मगर फिर भी लाचारी से देखते
क्योंकि उन्होंने हर वादे से पहले
चेहरे पर नया मुखौटा लगाया है

Sunday, April 25, 2010

आधी आबादी कि त्रासदी

एक पान कि दुकान पर कुछ ,
कुछ भी काम न ?
करने वाले वाले
ये लडके!
सिगरेट के छल्ले छोड़ते हुये
नौजवान लडके?
आने जाने वाली
काम करने वाली
लडकियों,
शादीशुदा उम्र दराज
काम करने वाली
ओरतो को भी
छेडते हुये,
तंग जींस चितकबरे शर्ट
बदन पर लटकाए
चोरी के
मोबाईल से गाने सुनते हुए
आवारा से लड़के
अपने आप को ?
उनकी इन नजरो से बचाती
बरसात हो ?तपती दुपहरी हो ?
या कि हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड
अपनी शादी के लिए पैसे जुटाती ,
ऐसे ही वर (लडको )पाने के लिए
अपने आप को झोंक देती
अपने जीवन को सार्थक करने में ये
लड़कियां....
अपने बेटे कों प्राइवेट स्कूल में
पढ़ाने के लिए
दिन रात चकरी कि तरह घूमती
इन्ही बेटों कि
माँ??

कमाऊ औरत!
मार खाकर भी
कुछ न बोलने वाली
औरत!
मेहनत से कमाए पत्नी के रुपयों
को शराब में खर्च करने को
अपना अधिकार समझने वाला
ही है .....
ऐसे बेटों का पिता!

फेल होने का भय

पिछले कुछ दिनों में पढने वाले किशोरों .किशोरियों और कुछ बच्चो ने स्कूली परीक्षा के भय से अपने आप को समाप्त कर लिया था तब कुछ विचार मन में आये थे उन्हें ह समेटा है |




पिछली शाम
बहुरूपिया बीत गई
छोटे छोटे तिनको को
समेटकर
छोटी सी चिडिया
फुर्र्र से उड गई

बडे से कचरे के डिब्बे में अपने
नन्हे नन्हे हाथों से
रोटी कि जुगत में
पेन्सिल कबसे छूट गई



श्मशान के आलोक में
नोनिहालों कि आहुति से
सूर्य कि
रश्मिया भी सिसकने लगी


कैसी रोटी ?
कैसी शिक्षा ?
अब तो पेट कि
भूख से
शिक्षा कि
अभिलाषा से
मौत ही आगे निकल गई|

महानो कि बस्ती में
सरकारो कि मौका परस्ती में
विद्वानो कि जबरदस्ती में
अभिभावको कि उपस्थिती में
उनसे ये चूक हो ही गई ..........

क्या आवश्यक है ?

कई बार अनियमितता के चलते या फिर दो दिन कोई मेहमान आ जाय तो घर अस्त व्यस्त हो जाता है |अभी पिछले साल जब घर कि पुताई(वैसे लोग पेंटिग करवाना कहना ज्यादा पसंद करते है ) करवाई और छत पर भी कुछ सामान रखा था रात में अचानक बेमौसम बारिश ग्लोबल वार्मिंग के कारण आने से जैसे तैसे सामान लाकर कमरों में पटक दिया |सुबह सुबह सब तो अपने काम से चले गये रह गई मै और बेतरतीब फैला सामान ,कहाँ से शुरू करू काम? कुछ समझ ही नहीं आ रहा था |ठीक वैसे ही पिछले दो चार दिन से हो रहा है इतने विषय दिमाग में घूम रहे है ,न चाहते हुए भी बार बार महंगाई के बारे में बात करना ,आपसी रिश्तो का दरकना ,मोबाईल पर झूठ पे झूठ बोलते हुए लोगो को सामने खड़े हुए सिर्फ देखना ,टेलीविजन पर ज्योतिषियों तर्कशास्त्रीयों कि बहस के द्वारा अपनी चैनल कि टी.आर .पी .बढ़ाना और टेलीविजन के धारावाहिकों में बेलगाम हिंसा का अत्यंत विकृत रूप परिवारों में दिखाना |
किसे विस्तार दू ?
इसी बीच रिलायंस फ्रेश में सोचा सब्जी ठीक मिल जाएगी? चलो आज वहीं से ले लेते है १२०० वर्ग्फूट कि जगह में रेक्स पर ठसाठस सामान भरा हुआ सा दीखता हुआ |एक बार में एक ही ट्राली और एक आदमी निकल सकता है उसमे भी उनके कर्मचारी ही सामान संजोने में लगे रहते है |एक बार में अगर दस आदमी आते है तो लगता है बहुत भीड़ है उस पर लगातार माइक पर ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए इस्कीमे दोहराते रहना कृत्रिम व्यस्तता दिखाने का ही एक उपाय लग रहा था |
सुबह ११ बजे के समय में ज्यादातर अवकाश प्राप्त लोग या गृहिणियां ही दिखाई देती है जो छांट छांट कर
सब्जी लेते है या पैक चीजो के भाव पढ़ पढ़कर सामान लेने में ही विश्वास करते है |पर आज कुछ नन्हे नन्हे ग्राहक भी दिखाई दिए जिन्हें उनकी शिक्षिकाये खरीददारी सिखाने के लिए लाई थी,प्यारे प्यारे छोटे छोटे नर्सरी के महज तीन साल के बच्चे |उन्हें सब्जियों के, फलों के अंग्रेजी नाम सीखना था? कैसे ट्राली लेकर आना? कैसे सामान लेना ?और कैसे बिल बनवाना |बच्चे बार बार कतार से अलग हो जाते उन्हें मिस डांट देती फिर ललचाई नजरो से चाकलेट कि तरफ देख लेते
और कतार में खड़े हो जाते |इस बीच मैडम ने अपने घर के लिए किराना खरीद लिया और करीब १५ मिनट में बच्चे वापस कतार में ही जाने लगे |और वही के एक कर्मचारी द्वारा उन्हें एक - एक चाकलेट दी जाने लगी |तभी एक बच्चे ने मचलकर कहा -मुझे दो चाकलेट चाहिए अपनी मम्मी के लिए भी ?पर सबको एक एक ही चाकलेट मिलनी थी |बच्चो का
शापिग पीरियड समाप्त हो गया था वो चले गये मै उनको देखने में ,उनकी नन्ही आँखों के अनेको प्रश्न पढने का प्रयत्न कर रही थी |और कुछ अपने से किये ?प्रश्नों के उत्तर भी खोज रही थी कि क्या ?बच्चो को अभी से खरीदारी करना सिखाना आवश्यक है ?और जितने अंग्रेजी नाम उन्हें सिखाये गये रोजमर्रा कि चीजो के वो भी अभी जरुरी है ?क्या वो याद रख पायेगे ?घर जाने तक ?यही सोचते सोचते मैंने भी सब्जी ली और घर आ गई|
घर आते ही मैंने देखा सामान रखने वाले काउन्टर से अपना सामान लाना भूल गई, सोचा शाम को ले कि टोकन तो है ही |शाम को गई तो देखा सुबह के बच्चो वाला ग्राहक बच्चा अपनी मम्मी का आचल पकड़कर जिद कर रहा था चाकलेट के लिए और कह रहा था अंकल ने सुबह तो दी थी अभी क्यों नहीं देते ?मम्मी ने बहुत समझाया सुबह कि बात अलग थी पर बच्चा कहाँ मानने वाला था ?उसकी मम्मी को चाकलेट खरीदनी पड़ी और वो भी पूरे परिवार के लिए ||
और मै सोचने लगी क्या बच्चे ने खरीददारी सीख ली? और बाजार ने बिक्री ????????

बसंत

शीत की बंद कोठरी के द्वार से
अंधेरो को उजाले में लाया है बसंत ।

महकती कलियों के लिए भोरो का ,
प्रेम संदेश लाया है बसंत .

पीले से मुख पर बसंती आभा
बिखेरता हुआ आया है बसंत .

किसानो के लिए फसलो की सोगात
लेकर आया है बसंत .

जीवन को जीवन देने ,
फ़िर से आया है बसंत .

और पढ़ते हुए बच्चो के लिए ,
देवी माँ सरस्वती का वरदान
लेकर आया है बसंत

Thursday, April 15, 2010

तुम्हारे....मेरे लिए....

तुम्हारे....मेरे लिए....
नींद मयस्सर नहीं अब मुझे...रात होती है... क्योंकि ये रात की मजबूरी है... वर्ना यूंही जागकर सोना....एक आदत सी बन चुकी है...ज़िंदगी बिताना भी...बस अब एक आदत सी है... जिंदगी के हर दोराहे पर.. कश्मकश पर...फलसफे पर.....गिरती-पड़ती.....दौड़ती-हांफती......कई ज़िंदगियों की जंग के बीच...सुनाई देती है...कुछ सन्नाटो की आहट....इक जंगल डूबा जो गहरे सन्नाटे में...बस वोही गुमा देता है इन यादो को....जीने की आदत को.... सन्नाटों की गमक को...उस हर चीज़ को जो देती आमद तुम्हारी...तुम्हारे आने की....तुम्हारी यादों की....तुम्हारी आँखो की....तुम्हारी उस एक मुस्कान की.... जिसके लिए ये ज़िंदगी भी कम इंतज़ार के लिए... पर फिर भी......इंतज़ार उस ज़िंदगी का जिन बर्फ़ बनती..रिश्तों की तासीर गुमाना चाहती हूं....क्योंकि..पता नहीं क्यों...एक गर्माहट जो तुम्हारे चेहरे से झांकती महसूस होती है...जिंदगी के एक और दिन के लिए....इक इंतज़ार के लिए और तुम्हारे ...मेरे लिए.......!!

सपने.....

सपने.....
कभी पलट कर नहीं देखती....
उमस भरी बेचेनी है..
जिंदगी बेखटक सरपट दौड़ी चली जा रही है..
मेरी सांसें कभी कभी थमती हैं..
इन्हें चैन नहीं...
मेरे सपनो की तरह पल पल बढती नहीं
इन आँखों में कई ख्वाब जाग रहे हैं
जाने कबसे
अब तो होश भी नहीं...
सपने...सपने.....और बस सपने...
पर समझ नहीं पा रही....
क्या ये सपने......मेरे सपने....
मेरे अपने...??
अकुलाहट ने भरम में डाल दिया
अब कुछ मालुम भी तो नहीं....
उस से वाकिफ भी नहीं
अरसा हुआ...
एक अक्स को सरमाया करते-करते
अब.....
अपना आईना ही झुठलाने लगी
गोया खुद को ही भुलाने लगी....
एक सोच हावी होती है
कभी कभी.....
गर पूरा न हो...
कोई सपना.....
फिर...
पर नहीं ...मन मानता नहीं....
अड़ता है उसी जिद पर....
बचपन में पढ़ी लाइन की तरह....
या तो सब कुछ ही चाहिए या फिर कुछ भी नहीं.........!!

ये लकीरें.....!!

ये लकीरें.....!!
कभी कभी कागज़ पर अनायास ही कुछ लकीरें खिंचती चली जाती हैं ...टेड़ी मेड़ी...अनगिनत महीन लकीरें.....इस जहन के नक्शे पर गढ़ती सी महसूस होती हैं......जाने क्या कहती......क्या छिपातीं .....जाने क्या उकेरतीं....भारहीन बनाती ...कभी बोझिल करतीं.....ये ऐसी...कुछ बारीक लकीरें...सिर्फ कागज़ ही नहीं....मेरे मन में भी गढ़ती हैं....अजीब लगता है पर.....वोही लकीरें सुलगती भी दिखती हैं.....जो मुझे सुलगाती हैं...मेरे अन्दर....एक ही तो तस्वीर होती है....जिसकी खुशबु बाहर तक बिन कहे आ जाती है.....किसी लोबान से उठते धुंए की तरह...और फ़क़त उसी जहाँ के अन्दर की पनाहों को कंही चीर जाती हैं ये लकीरें......अंदर....बनती बिगड़ती बटोही सी.......भटकती और भटकातीं भी....हर रह गुज़र से दरयाफ्त करतीं...अन्दर खोये इक तुम्हारे अक्स की तलाश करतीं...और एक बार फिर.....अपनी अनजान राह चलती.....ये लकीरें.....!!