इंसान क्या चाहता है और उसे पाने के लिए जो करना है उसके लिए कितनी हिम्मत रखता है उसी से फैसला होता है कि उसे जो चाहिए वह मिलेगा या नहीं। कितनी बार मन करता है कि बस अब घर पर रहें, काम पर न जाएँ, लेकिन मजबूर हो कर जाना ही पड़ता है। सोचना पड़ता है कि क्या यही चाहते थे हम, या कुछ और? पैसा, शोहरत, या चैन की साँस? उन दिनों तो लगता ही नहीं कि पैसा और शोहरत पाने के लिए चैन की साँस खोनी पड़ेगी। लेकिन खोनी पड़ती है और उसके बाद भी चढ़ाई बस चढ़ते जाओ, चढ़ते जाओ, कभी खतम नहीं होती। कहीं रुक गए तो डर लगता है कि दूसरे आगे निकल जाएँगे। जीत तो सकते ही नहीं।
चाहत खत्म क्यों नहीं होती? साइकिल मिल गई तो कार चाहिए, एक कार मिल गई तो दो, कभी भी खत्म नहीं होती।
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