Thursday, April 15, 2010

सपने.....

सपने.....
कभी पलट कर नहीं देखती....
उमस भरी बेचेनी है..
जिंदगी बेखटक सरपट दौड़ी चली जा रही है..
मेरी सांसें कभी कभी थमती हैं..
इन्हें चैन नहीं...
मेरे सपनो की तरह पल पल बढती नहीं
इन आँखों में कई ख्वाब जाग रहे हैं
जाने कबसे
अब तो होश भी नहीं...
सपने...सपने.....और बस सपने...
पर समझ नहीं पा रही....
क्या ये सपने......मेरे सपने....
मेरे अपने...??
अकुलाहट ने भरम में डाल दिया
अब कुछ मालुम भी तो नहीं....
उस से वाकिफ भी नहीं
अरसा हुआ...
एक अक्स को सरमाया करते-करते
अब.....
अपना आईना ही झुठलाने लगी
गोया खुद को ही भुलाने लगी....
एक सोच हावी होती है
कभी कभी.....
गर पूरा न हो...
कोई सपना.....
फिर...
पर नहीं ...मन मानता नहीं....
अड़ता है उसी जिद पर....
बचपन में पढ़ी लाइन की तरह....
या तो सब कुछ ही चाहिए या फिर कुछ भी नहीं.........!!

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