Thursday, April 15, 2010

ये लकीरें.....!!

ये लकीरें.....!!
कभी कभी कागज़ पर अनायास ही कुछ लकीरें खिंचती चली जाती हैं ...टेड़ी मेड़ी...अनगिनत महीन लकीरें.....इस जहन के नक्शे पर गढ़ती सी महसूस होती हैं......जाने क्या कहती......क्या छिपातीं .....जाने क्या उकेरतीं....भारहीन बनाती ...कभी बोझिल करतीं.....ये ऐसी...कुछ बारीक लकीरें...सिर्फ कागज़ ही नहीं....मेरे मन में भी गढ़ती हैं....अजीब लगता है पर.....वोही लकीरें सुलगती भी दिखती हैं.....जो मुझे सुलगाती हैं...मेरे अन्दर....एक ही तो तस्वीर होती है....जिसकी खुशबु बाहर तक बिन कहे आ जाती है.....किसी लोबान से उठते धुंए की तरह...और फ़क़त उसी जहाँ के अन्दर की पनाहों को कंही चीर जाती हैं ये लकीरें......अंदर....बनती बिगड़ती बटोही सी.......भटकती और भटकातीं भी....हर रह गुज़र से दरयाफ्त करतीं...अन्दर खोये इक तुम्हारे अक्स की तलाश करतीं...और एक बार फिर.....अपनी अनजान राह चलती.....ये लकीरें.....!!

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