Thursday, April 15, 2010

तुम्हारे....मेरे लिए....

तुम्हारे....मेरे लिए....
नींद मयस्सर नहीं अब मुझे...रात होती है... क्योंकि ये रात की मजबूरी है... वर्ना यूंही जागकर सोना....एक आदत सी बन चुकी है...ज़िंदगी बिताना भी...बस अब एक आदत सी है... जिंदगी के हर दोराहे पर.. कश्मकश पर...फलसफे पर.....गिरती-पड़ती.....दौड़ती-हांफती......कई ज़िंदगियों की जंग के बीच...सुनाई देती है...कुछ सन्नाटो की आहट....इक जंगल डूबा जो गहरे सन्नाटे में...बस वोही गुमा देता है इन यादो को....जीने की आदत को.... सन्नाटों की गमक को...उस हर चीज़ को जो देती आमद तुम्हारी...तुम्हारे आने की....तुम्हारी यादों की....तुम्हारी आँखो की....तुम्हारी उस एक मुस्कान की.... जिसके लिए ये ज़िंदगी भी कम इंतज़ार के लिए... पर फिर भी......इंतज़ार उस ज़िंदगी का जिन बर्फ़ बनती..रिश्तों की तासीर गुमाना चाहती हूं....क्योंकि..पता नहीं क्यों...एक गर्माहट जो तुम्हारे चेहरे से झांकती महसूस होती है...जिंदगी के एक और दिन के लिए....इक इंतज़ार के लिए और तुम्हारे ...मेरे लिए.......!!

1 comment:

  1. साहब आप तो डॉक्टर है ,फिर ये कला कहा से सीखी आपने .........अगर रचना के आगे या पीछे ,ऊपर या निचे कही भी रचनाकार का नाम भी दे देते तो अधिक उपयुक्त होता .....आशा है दूसरों की रचाने अपने ब्लॉग पर डालने से पहले आप ऐसा ही करेंगे........आपका शुभ चिन्तक ..................

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